कुँड़ुख़ भाषा को तोलोंग सीकी से बचाइए नही तो कुँड़ुख़ समाज हज़ारों साल गर्त में चला जायेगा

आप सभी को जय जोहर, जय धर्मेश,जय कुड़ुख़र ,जय आदि शक्ति




 हे कुंडुख समाज के बिद्वानों, अभी भी नहीं हुआ है देर 

अगर हम सही परख न पाएँ, तो हो जाएगा अंधेर !!  

आज मैं बहुत ही बड़ा मुदा के बारे में बात करूंगा । आप सभी कुड़ुख़र लोगों को जानना बेहद जरूरी है । अगर अब सही को परख नही पाए तो सब कुछ खत्म हो जाएगा, टाटा बाय बाय हो जाएगा । 


बात सुरु होता है दक्षिण भारत के राज्य से, वहां में तकरीबन 6 महीना INTERNSHIP के लिए गया हुआ था, इस बीच में वहां बहुत सारे दोस्त बन गए जो कि SOUTH INDIAN निवासी थे । वो सब तमिल,तेलगु,मालायम, कन्नड़ यह भाषा बोलने वाले दोस्त सब हैं । 
एक दिन में टोलोंग सिक्की का कुछ Sample देख रहा था तब एक दोस्त आया और मुझसे पूछने लगे " यह कौनसा भाषा का बर्नमला है " 
मुझे जितना पता था मैं उनको बाता दिया फिर वो लोग बोलने लगे " यह लिपि तो पूरा का पूरा हमारे लिपि जैसे है थोड़ा सा भी बदलाव नही किया गया है बस थोड़ा बहुत उल्टा पुल्टा के लिखा गया है " 
तबसे हमने भी इसके बारे में खोजबीन (Research) करना सुरु कर दिए और हमे इस संबंध में बहुत सारे गलत तात्य मिला जो कि मैं इस आर्टिकल मैं आप सभी से शेयर करना चाह रहा हूँ । 




कुडुख भाषा के विकास और उस पर कार्य करने के नाम पर  राष्ट्रीय कुडुख लिटरेचर सोसाइटी सहित्य  ने हमारे कुँड़ुख़ समाज को छितिर बीतिर कर के रख दिया है । जब लिपि की बात आती है तो इसने  अन्य भाषा
संगठन लिपि को लेकर किसी प्रकार का सुझाव नहीं चाहे क्यों कि उन्हें भी पता है कि यह एक चोरी लिपि है । 
यह बात को डॉ नारायण को भी पता है इसी लिए किसी भी प्रकार का डिबेट करना नही चाहते है । 



चिंता सता रही है कि यदि उरांव समुदाय की कुडुख भाषा की दो लिपि समुदाय में प्रचलित होती है या सभी के सामने  सार्वजनिक तौर पर दो लिपी अति  है तो कुड़ुख़र समुदाय के विखंडित होने का खतरा हो जाएगा और इसको कोई रोक नहीं सकता है । साथ ही दो लिपि प्रचलन में आती है तो समुदाय दो विचारधारा में बंट जाएगा । इसलिए इस बहस को अंतरराष्ट्रीय पटल पर न ले जाकर आंतरिक स्तर पर सुलझाने का प्रयास किया जाना चाहिए लेकिन अभी तक ऐसे कोई काम नही किया जा रहा है । 

इसीलिए हमको बोलना पड रहा है क्यों कि सच को सच और झूठ को झूठ बोलने का हमारा हक है । 

क्या है विवाद: 

द्रविड भाषा परिवार से उपजी उरांव जनजाति की भाषा कुडुख बोलने वाले आज झारखंड,बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, असम, नेपाल, भूटान सहित अन्य देशों में हैं। भाषा तो सबकी एक है। इस समुदाय के सामने दो लिपियां सामने आ गई हैं।
डॉ. नारायण उरांव सैन्दा द्वारा निर्मित तोलोंग सिकी 11 सालों से उपयोग की जा रही है ऐसे दावा करते है जबकि अभी तक एक दो निजी मिशनरी बिद्यालय को छोड़ के किसी ने टोलोंग सिक्की से लिखना पढ़ना सुरु नही किये हैं इसका कारण यह है कि टोलोंग सिक्की में बहुत सारे गड़बड़ी देखने को मिलता है । 

1988-89 के दशक में "कुँड़ुख़  बन्ना लिपि" को  वासुदेव राम खलखो  ने बनाई है । खलखो साहेब ने "कुँड़ुख़ बन्ना लिपि" का डिज़ाइन कुँड़ुख़ अदिवासियीं की धार्मिक चिन्ह " डंडा काटना " से डिज़ाइन किये हैं । उनको कहना है कि जितना भी कुँड़ुख़ भाषा लिखेंगे उतना ही बार " आना अद्दि मंजुरना मलेका" प्रार्थना समाहित होगी ।  यानी कि हर अक्षर में पूरा प्रार्थना समाहित होती है । 

और उनका मानना है कि तोलांग सिकी ज्यादा जगह लेता है, जबकि बन्ना लिपि देखने में सुंदर है। 
तोलोंग सिकी के निर्माता का कहना है कि यह लिपि वैज्ञानिक है और कम्प्यूटर में फीड हो चुकी है लेकिन ऐसा बिल्कुल देखने को नही मिलता है । अभी भी टोलोंग सिक्की में बहुत सारे कमजोरियों देखने को मिलता है । 
तोलोंग सिक्की में लिखने से " तोलोंग सिक्की का अक्षर की दूरियां बहुत ज्यादा ही होती है । 



तमिल भाषा से मिलती है :-

कुडुख भाषा विशेषज्ञ बताते हैं कि कुडुखर द्रविड़ भाषा परिवार की होने की  वजह से दक्षिण भारत की भाषाओं से मिलती जुलती है । जबकि द्रविड़ भाषा परिवार में तेलुगु, कन्नड़,मलयालम, गोंडी, निलगिरी, महती, ती किसानी व ब्रहावी भाषा है लेकिन इन भाषाओं से कुँड़ुख़ भाषा का कोई भी समानता देखने को नही मिलता । 








टोलोंग और कुड़ुख़ नाम में जमीन आसमान का अंतर देखने को मिलता है :- 

पूरे कुँड़ुख़ भाषा का अगर शब्द में टोलोंग का मतलब ढूंढने से भी इसका शब्दार्थ नही मिलता है । हां लेकिन मैं बचपन में  टोलोंग नाम से गीत सुनने को मिल रहा था अब मिलता है ।  टोलोंग एक Traditional Textiles है 
हमारे पुरखा लोग जो धोति को आधा कर के पहनते थे उसी को "तोलोंग" कहा जाता है । इसको ले के एक सादी गीत भी है  "आगे तोलोंग दादा पीछे टोलोंग" 

हमे कुड़ुख़र नाम से खुद का पहचान बनाना ना कि टोलोंग नाम से । 
  • जैसे कि ओड़िया लोगों का भाषा है ओड़िया और उनका लिपि का नाम भी ओड़िया है 
  • बंगाली लोगों का भाषा है बंगाली और उनका लिपि का नाम बंगाली है 
  • तेलगु लोगों का भाषा तेलगु है और उनका लिपि का नाम तेलगु  है 
ओसे ही हमलोग का भाषा कुँड़ुख़ है तो लिपि भी कुड़ुख नाम से होना चाहिये लेकिन यह लोग तो हमे टोलोंग नाम दे रहे हैं । दूसरा समाज के लोग हमें टोलोंग नाम से पुकारेंगे । 

तोलोङ सिकि से लिखने-पढने में समस्या !

१) तोलोङ सिकि नामक यह लिपि को डाँ ० नरायण उराँव ने सन् १ ९९ ५ ई ० को सपूर्ण आदिबासी समाज की लिपि की परिकल्पना को लेकर तैयार किया। जब कि संन्थाल जनजाति के बिद्वानों ने ५० वर्ष पूर्व ही अपनी समुह की भाषा के लिए ओल-चिकि (सन्थाली-लिपि) का उद्भव कर चुके थे।

२) यह लिपि को कुँड़ुख़ (उराँव) समाज के लोगों ने अपनी मातृ-भाषा की लिपि के रूप में स्वीकार लिया है, ऐसा किताबों में देखने को मिलता है। परन्तु अभी तक तोलोङ-सिकि द्वारा कुँडुख समाज के लोग लिखाई-पढाई नहीं कर रहे हैं, केवल कुछ गिने चुने एक-दो मिसनारी निजी-बिद्यालयों को छोड़कर ।

३) इसके उपरान्त कुँडुख समाज के बिद्वानों ने कभी अपनें मन-दर्पण की ओर एकबार झांक कर भी नहीं देखा कि;

 क) यह लिपि पठन-पाठन व लिखने कि कार्य के लिए कितना उत्कृष्ट है?

ख) इसकी बनावट अन्य लिपियों से मिलता है या नहीं?

ग) इस लिपि में और कौन कौन सी कमजोरीयाँ हैं?

) डाँ ० नरायण सहब ने अपने जिन्दगी का आधा हिस्सा समय व्यतित कर के कुंडुख समाज के लिए लिखने-पढने का भविष्य को राह दिखाने का प्रयास किया और तमाम कुँडुख भाई-बहनों में अपने  भाषा से पढने-लिखने का उमंग पैदा किया। 

इस बात में दो मत नहीं है। परन्तु मेरा कहना है कि,

' प्रयास ऐसा न हो, जिसका फल स्वरूप हमारे समाज के आनेवाली पिढीयों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़े, जिसके कारण समाज को उन्नति के वजय अवनति के खतरनाक दरार में गिर जना पड़े। 

आइए हम आत्म मन्थन कर इन बिन्दुओं पर विचार करते हैं:

१) तोलोङ-सिकि के उद्भावक डाँ ० नरायण उराँव ' ने जोर दे कर कहा है कि, 

                '' यह लिपि की रेखा-चित्रों को हमारे दिनचर्या में व्यवहार होने वाला धार्मिक, अद्दि-सस्कृतिक एवं अद्दि पारम्पारिक चिन्हों को ले कर तैयार किया गया है। 

यही कारण है की, कुँडुख समाज के लोग इसे अपना कर लिख-पढ के ज्ञानी बनने का आशायी बन गए हैं। परन्तु देखा जाए तो इस लिपि में कोई भी ऐसा चिन्ह देखने को नहीं मिलता है। एक बात स्पष्ट है की, अद्दी-सस्कृति का प्रकृतिवादिता एवं इसका अनमोल दार्शनिक-तत्वों को लिपि के सहारे समाज में उपस्थापना करना, डाँ ० साहब का एक उच्च-सोच बिचार एवं हमारे अद्दि-सस्कृति के प्रति श्रद्धा और आत्मीयता रखने का ध्योतक है। यह कटु सत्य को कोई भी नकार नहीं सकते। इस बात को समाज को मनना पड़ेगा।

२) तत्पश्चात भी यह खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि, इस लिपि का हमारे समाज में लागु होने पर यह शिक्षा की गुणवत्ता को अग्रसर करने के वजाय ५० वर्ष पिछे ढाकेल कर गर्त में ले जाएगा। क्यों की,

३) सबसे बड़ा कारण है, 

         इसकी बर्ण मालाओं को तेलगु, तमिल, मलयलम एवं कन्नड़ इन चार भाषाओं का लिपियों के ध्वनी-चिन्हों को नकल किया गया है। इसका ७० प्रतिशत से भी ज्यादा ध्वनी-चिन्ह पूरी तरह मिलते जुलते हैं । 

अगर आने वाले भविष्य में इन भाषाओं के लोग प्रश्न करेंगे तो कुंडुख-समाज क्या उत्तर देगी?


-तलोंग सिक्की में लिखने से लम्बी लम्बी शब्द (Word) बनते हैं।

-कहीं कहीं ध्वनियों को पूर्ण रूप से स्पष्ट उच्चारण करना सम्भव नहीं हो पता है।

-एक पंक्ति में ५ से ७ शब्द ही समाते हैं।

-२ पंक्ति (Lines) बनाने के जगह ४ पंक्तियां बनते हैं।

-जिसके कारण अत्यधिक जगहों का आवरण के साथ कागज (Paper) भी खर्च होता है।

अर्थात् तोलोङ सिकि से लिखने पर हमारे गरीब समाज को दो गुणा अधिक आर्थिक बोझ को ढोना पड़ेगा, जो कि असम्भव है। अधिक जगह लेने के कारण लिखने में अत्यधिक समय (Time) का भी व्यतित होता है।





६) मैं कुंडुख (उराँव) समाज से सवाल करता हूँ:

  • क्या हमारे बच्चे यह लिपि से पढ़-लिख कर अपने मंजिल तक पहुँच पाएंगे ?
  • क्या गरीब मता-पिता बच्चों का कागज-कलम व किताब के लिए अतिरिक्त खर्च उठा पाएंगे ?
  • क्या केन्द्र सरकार इस लिपि से पढने-लिखने वालों के लिए परीक्षाओं में अधा-घंटा अतिरिक्त समय देगी  ?
  • तोलोङ सिकि का २४ बर्ष प्रचार-प्रसार के दौरान इस लिपि को मान्यता देने वाले हमारे समाज के कितने बिद्वानों ने लिखना-पढना सीख चुके हैं  ?

७) आश्चर्यजनक बात यह है कि  इतने सारे कमजोरीयाँ होने के बवजुद भी हमारे समाज के भाषा- विद्वानोँ एवं साहित्यकारों ने क्यों परख नहीं पाए?

८) तोलोंग-सिकि के बारे Internet Services में जो तथ्य Release किया गया है, उसमें भी अनेकों गलतियाँ पाए जाते हैं। जिसका सुधार कौन करेगा? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है !

इसका तात्पर्य यह है कि, तोलोङ सिकि को बढावा देने वाले बिद्वानों ने भी यह लिपि को पढने व लिखने को नहीं सीखा। क्यों नहीं सीखा? इसका उत्तर हमारे बिद्वानों के पास नहीं है।

परन्तु कईयों का कहना है कि, तोलोङ सिकि से भी कुंडुख भाषा का ध्वनियों को साफ साफ लिखना सम्भव नहीं होता है। इसका ग्रहणयोग्य उदाहरण मैं प्रो. चौठी उराँव एवं महाबीर उराँव को देना चाहूँगा। 

उन्होंने अपनी किताब ' कुँडुख कत्थअइन अरा कत्थटूड़ (कुंडुख व्याकरण एवं निबन्ध) का Page No.-10' में लिखे हैं:-

 'एकासे का हिन्दी ही देवनागरी, अंग्रेजी ही रोमन, उर्दू ही फारसी, पंजाबी ही गुरूमुखी, संस्कृत ही देवनागरी, अन्नेम कुँडुख भखा गे हूँ लूरगरियर कय खेवा सिकि ओथोर ईरयर, पहें अबड़ा सिकि ती कुँडुख भखान टूड़ा-बचआ गे जोक्खा-जुगुत मल बनचा ईतरा जोक उल्ला ती तोलोंग सिकि ओथोरअर अत्तु कुँडुख भखान उसुगतआ-पानतआ बेदा लगनर पहें दुक्खे कत्था गा ईद र ई का ई तोलोंग सिकि ती हूँ डुडुख कत्थन टुड़ा-बचआ गे अन्नेम ओत्था मनी एकाअन्ने का देवनागरी सिकि ती मनी। मा-नी कत्था गा ईदिम र'ई का अक्कुन नाम तोलोंग सिकि ती टूड़ा-बचआ खने नम्हय भखा विथरारआ पोल्लो अरा समटारओ कालो। अवंगेम कुडुख भखान परदअना र ई होले नमा देवनागरी सिकितिम टूड़ना-बचना चाड़ र'ई। अवंगेम ई पुथि देवनागरी सिकि नुम टूडरआ लगी।

इसका कारण स्पष्ट होता है कि, हमारे भाषा विद्वानों एवं लिपि के अन्वेषकों ने इस लिपि की गहन अध्ययन के साथ कार्यशाला का आयोजन नहीं किया! जिसके फलस्वरूप इतनी बड़ी समस्या को हमारे बिद्वानों ने जन्म दिया है। 

मै सवाल करता हूँ अगर कार्यशाला का आयोजन हुई थी तो कितने लिपि आविष्कारों को आमन्त्रीत किया गया था?

-कौन कौन बैठे थे ? कहाँ पर बैठक हुई थी ? और कब हुई थी?

मेरा कहना है कि,

  • लिपि ऐसा हो, जो कि सहज, सरल, सुन्दर हो। जिसके सहारे हम जैसे बोलते हैं वैसे ही लिखने कि सुबिधाएँ हो। पढते समय उच्चारण स्पष्ट हो।

  • जैसे हमारे कुंडुख-भाखा (अयंग-भाखा) विश्व में एक स्वतन्त्र भाषा है, उसी तरह इसकी लिपि भी स्वतन्त्र हो। जिस लिपि से कुंडुखार का एक स्वतन्त्र पहचान बनें।

  • लिपि को समाजिक मान्यता से पहले सभी लिपि-अन्वेषकों को बैठाकर मत-टिकाने की अतिअवश्यक एवं अनिवार्य है।

ओडिशा के रहने वाले विद्वान श्रीमान मंगला खलखो जी ने भी एक लिपि को तैयार करने में अपने हाई स्कुल जीवन से ही बहुत समय बिता देए । परंतु यह खेद की विषय है की वे उसे कोई कारणवश पूर्ण कर नहीं पाए। 

लेकिन उनका कहना है की,-

"लिपि ऐसा हो जिसे कुंडुख भाषा को कमसे कम ध्वनि-चिन्हों द्वारा, कम जगहों पर एवं कम समय में लिखा जा सके | उसे एक उन्नत लिपि कहते है।

राउरकेला के रहने वाले, ओड़िशा प्रदेश अखिल भारतीय विकास परिषद के अध्यक्ष श्रीमान महादेव उराँव ने भी' कुँडुख-गरनी ' नामका एक लिपि को तैयार किया। परन्तु उन्हें भी कभी लिपि से सम्बधित कार्यक्रमों में अगाह  नहीं किया गया ना ही सामिल किया गया  ।

श्रीमान बासुदेव राम खलखो जी के द्वारा उद्भव किए गए यह कुँडुख बन्ना (लिपि) को कुंडुख समाज के विद्वानों के तथा समाज को चलाने वाले लोग स्पष्ट रूप से पहचानें, उस के बाद सोच-समझ कर अपने भविष्य की सुन्दर, सुरक्षित, आदर्श, उत्तम और प्रभावशाली कुँडुख-साहित्य का परिकल्पना के साथ यह लिपि को अपनाएँ और अपनी भावी समाज को एक उत्तम राह दिखाएँ।

श्रीमान खलखो जी ने यह सुन्दर लिपि को बनाने तथा अन्वेषण करने मे अपने जीवन का २५ वर्ष व्यतित कर दिए हैं। सन् १ ९९ ५-९ ६ ई ० को यह लिपि को इन्होंने लगभग तैयार कर चुके थे । लोगों के मन में एक प्रश्न स्वतः रूप से उत्पन्न होगी की,आगर यह लिपि की पहले से तैयार हो चुकी थी  तो इतने दिन तक क्यों निश्चिन्त हो कर बैठे थे ?

परन्तु यह खेद के साथ कहना पड़ रहा है की, साहब को लिपि से सम्बन्धित कार्यक्रमों में अगाह नहीं कराया गया, यह जानते हुए की, उन्होंने भी एक कुँडुख बन्ना (लिपि) का आविष्कार किया है ।

यह बात डॉ  नरायण उराँव जी को भी जानकारी थी । सन १ ९९ ७-९ ८ ई  में बासुदेव जी ने यह लिपि का नकल कुँडुख-समाज के विद्वानों तथा अन्य बिशिष्ट व्यक्ति व संस्थान के पास भेज चुके थे ।

जैसे- डॉ ० राम दयाल मुंडा, भूत पूर्व उपकूलपति, विश्वविद्यालय रांची, डॉ ० करमा उराँव, श्री सहदेव किस्पोट्टा, श्री रूईदास उराँव, श्री गौर हरी उराँव, श्री सुखदेव उराँव, TRACE :-Tribal Research Analysis Communication and Education, Ranchi, Jharkhand  इत्यादि।

हमारा उद्देश्य प्रतिद्वन्दिता व बिगाड़ना नहीं बल्की सभी दृष्टीकोण से समाज का भविष्य में मंगल हो ।

-कुंडुख समाज के ध्वनि-विज्ञानीयों से हमारा बिनीत प्रार्थना है कि, अगर यह लिपि में किसी किसी ध्वनि-चिन्हों का अभाव हो, जो कुंडुख-भखा (भाषा) को लिखने में असम्पूर्ण साबित करता हो तो स्पष्ट रुप से निर्बिघ्न अपना बहुमूल्य मत प्रदान करने की कृपा करें।

राजी-पड़हा से मेरा निवेदन है, अपने कुंडुख बन्ना लिपि के साथ भाषायीक उन्नति के लिए कार्यक्रम करे साथ ही अपने लोगों में कुंडुख भाषा-साहित्य के प्रति अभिरूची पैदा करे । वरना कुंडुख समाज का वर्चस्व ही समाप्त हो जाएगा क्यों की भाषा ही समाज का नीव (Infrastructure) है |

यह आर्टिकल आपको कैसा लगा कमेंट कर के जरूर बताएं और इस गंभीर विषय के बारे में चिंता कीजिये वरना ऊपर तो आपलोग पढ़ ही चुके देख ही चुके हैं ।  





Post a Comment

और नया पुराने