झाड़ू ( बढ़नी ) बनाने की
परम्परा और इसके विलुप्त होने का डर क्यूँ हो रहा है ?
मेरा नाम रोशन टोप्पो,आप सभी को इस ब्लॉग में स्वागत है। आज मैं आप सभी को हमारे आदिवासियों की प्राचीनतम परंपरा रीती रिवाज़ से रूबरू करने जा रहा हूँ। इस आर्टिकल में जानेंगे आखिर कैसे धीरे धीरे झाड़ू ( बढ़नी -ଝାଡୁ ) बनाने की परम्परा और इसके विलुप्त होने का डर क्यूँ हो रहा है ?
- बढ़नी(झाड़ू) को क्यूँ इस्तेमाल किया जाता है ?
बढ़नी(झाड़ू) का बुटा, घर हो या बहार हरेक जगह में साफ-सफाई के लिए उपयोग किया जाता है ।
- बढ़नी(झाड़ू) कहाँ कहाँ अधिक मिलता है ?
ओडिशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, बिहार में, बढ़नी(झाड़ू) लगभग सभी जगहों पर मिलता है और इसके अलग-अलग प्रकार जैसे काटा बढ़नी(झाड़ू) , सील, फुल आदि भी मिलते हैं। ये बढ़नी(झाड़ू) जंगलों के खेतों के आइर में आसानी से मिल जाते हैं।
- मुझे कब बढ़नी(झाड़ू) के बारे में जानने का मौका मिला ?
काफी अरसे बाद,
मुझे बढ़नी(झाड़ू) बुनती हुई दो बुजुर्ग महिलाएं घरों में दिखाई दीं, जो घरों में खाली समय का सदुपयोग करके, सील बढ़नी(झाड़ू) बनाने में बिता रही थीं। बढ़नी(झाड़ू) बनाने में, बुजुर्ग महिलाएं अनुभवी थीं और अपने हाथ से तेज़ी व आसानी से बना रही थीं। बहरी के एक-एक काड़ी को गाथ (बुना) रही थीं। बढ़नी(झाड़ू) को एक आकर्षण देना, वो कला की पहचान है। आमतौर पर, बढ़नी(झाड़ू) कई तरह से बनाई जाती हैं और अलग-अलग बढ़नी(झाड़ू) का अलग स्थानों पर अपना महत्व होता है।
- बढ़नी(झाड़ू) कई प्रकार होता है ?
जैसे ;घर, देवगुड़ी, कोठार (बियारा), कोठा इन स्थानों पर कांटा बढ़नी(झाड़ू) का उपयोग किया जाता है
घर-दुवार और देवगुड़ी के लिए ज्यादातर फूल बढ़नी(झाड़ू) का उपयोग किया जाता है।
बढ़नी(झाड़ू)का उपयोग, हर घर में होता है और इसकी मांग भी खूब रहती है। छत्तीसगढ़ के कई ऐसे जगहों पर, जहां महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा लघु कुटीर उद्योग संचालन हो रही है। अब गाँव हो या शहरी इलाका बढ़नी(झाड़ू) का अत्यधिक खपत हो रहा है।
- बढ़नी(झाड़ू) बनाने के लिए वे क्या करते हैं ?
बढ़नी(झाड़ू) बनाते हुए
|
- इस यात्रा में हमें क्या अच्छा लगा ?
इस दौरान दो बुजुर्ग महिलाएं अपनी बहु को बहरी बनाने की कला सिखा रहीं थी और बहु भी बहरी को मन लागा कर बुन रही थी। ताकि, अपनी आने वाले पीढ़ी को, वह भी बहरी बनाने की कला को हस्तांतरित कर सके। यह बहुत अछि प्रयाश है ..
अपने बहोरिया को झाड़ू बनाते सिखाते हुए |
- आदिवासी झाड़ू और रेडीमेट झाड़ू में अंतर ?
वर्तमान समय में, मार्केट व बाजारों में, कई तरह के झाड़ू देखने को मिलते हैं। मौजूदा समय में, गांव में, हाथों से बानाए जाने वाली झाड़ू मार्केट में कम देखने को मिलता है। अब गांवों में, बहरी बनाने वाले बहुत कम लोग दिखाई देते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि, मार्केट से रेडीमेड झाड़ू आसानी से मिलता है। जिसके चलते हाथ से बनी झाड़ू, सिर्फ गांव तक ही सिमट गयी है। उन बुजुर्ग महिलाओंं से बातचीत में पता चला कि, उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
उन्होंने साझा किया कि, अब वे पहले की तरह आसानी से बढ़नी(झाड़ू) नहीं प्राप्त कर पाती हैं और इसके लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता होती है। और उसमें भी, कभी मिलता है, तो कभी नहीं मिलता है। बरसात के मौसम में, बढ़नी(झाड़ू) झाड़ू की उत्पादन अधिक होती है। इसलिए, उस वक़्त आसानी से मिल जाती है।
एक दूसरा कारण, खुली मैदानों को खेत खलिहान बनाना है। जिसके वजह से, ये कम मात्रा में उपलब्ध हो पाती है।
आप सभी से बिनती है ?
आज के परिवेश में, बढ़ती आधुनिकता लोगों को उन परम्परा व कला और संस्कृति से कहीं दुर न कर दे। हम आशा करते हैं कि, आने वाली पीढ़ी इन सभी रुढ़िजन्य आधारित परम्पराओं को न भुले और अपनी संस्कृति, कला और भाषा को अक्षुण्ण बनाए रखें।
धन्यवाद 🙏
लेखक - रोशन टोप्पो
सहयोगी - आदिवासी लिव्स मत्तेर
बहुत अच्छा जानकारी दिए Mr. Toppo जी ❤️
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंएक टिप्पणी भेजें